श्रद्धा सर्ग कामायनी
श्रद्धा सर्ग कामायनी “कौन तुम! संसृति-जलनिधि तीर तरंगों से फेंकी मणि एक, कर रहे निर्जन का चुपचाप प्रभा की धारा से अभिषेक! मधुर विश्रांत और एकांत— जगत का सुलझा हुआ रहस्य, एक करुणामय सुंदर मौन और चंचल मन का आलस्य!” सुना यह मनु ने मधु-गुंजार मधुकरी का-सा जब सानंद, किए मुख नीचा कमल समान प्रथम कवि का ज्यों सुंदर छंद; एक दिन जब मनु विभिन्न विचारों में लीन थे तब अचानक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि कोई उनसे यह कह रहा है—“जिस प्रकार समुद्र की लहरें समुद्र में भीषण उथल-पुथल मचाकर सतह से मणियों को निकालकर फेंक देती हैं उसी प्रकार इस संसार रूपी समुद्र की लहरों अर्थात् सांसारिक आघातों से ठुकराए हुए मणि के समान तुम कौन हो? साथ ही जिस प्रकार समुंदर तट पर पड़ी हुई वह मणि अपनी आभा से समीपवर्ती प्रदेश को पूर्णत: जगमगा देती है और उस शून्य स्थान में उसका प्रकाश फैल जाता है उसी प्रकार इस सागर के समीप चुपचाप बैठे, अपने अपूर्व व्यक्तित्व की आभा प्रकट करने वाले तुम कौन हो।” कवि का कहना है कि उस आगंतुक ने मनु से यह पूछा कि “तुम इस एकांत स्थान में क्यों बहु